देखो भाई लोग हम लोग उस दुनिया में रहते हैं जहाँ गैंगस्टर ड्रामा लाइक – केजीऑफ, सालार, स्पाइ थ्रिलर मूवीज़ लाइक पठान, फिक्शनल फैन्टैसी ड्रामा लाइक बाहुबली आरआर जैसी फ़िल्में लोग ज्यादा देखने जाते है, क्योंकि खाने में और फिल्मों में दोनों में मसाला इंडियन ऑडियंस को ज्यादा अच्छा लगता है,
जो अनफॉर्च्युनेटली ओपनहाइमर में नहीं मिलेगा। भाई साहब, इस मूवी को वही लोग देखने जा सकते हैं जो क्रिस्टोफर नोलन के डायरेक्शन के दीवाने हैं ऐंड माइंड 90% से ज्यादा लोग इस मूवी को देखने जा ही इसीलिए रहे हैं क्योंकि डायरेक्टर क्रिस्टफर नोलन है।

नोलन भाई साहब के पिछले कितने ही प्रोजेक्ट आप खंगाल के देख लो। एक एक मूवी सिनेमा के पर्पस को डिफाइन करती है। बैटमैन बिगिन्स ले लो इन्टर्स्टेलर ले लो इन्सेप्शन ले लो या टेनेंट हर मूवी को समझने के लिए नॉर्मल ऑडियंस को इंडियन फिल्मों का मसाला भूलना ही पड़ता है।
और जितना भी चवनप्राश खा लो भाई साहब अगर आपको सिर्फ सो कॉल्ड मसाला मूवीज़ ही पसंद है तो क्रिस्टोफर नोलन की मूवीज़ आपको कभी पसंद नहीं आएगी। छोड़ो बात अगर मूवी की करें तो मूवी है 3:10 के इंटरवल और स्टार्टिंग की ऐड्स वगेरह पकड़ के चलो तो आपको 3.5 घंटे थिएटर में गुजारने पड़ेंगे और अगर आप एक science स्टूडेंट हो या science एक्सपेरिमेंट पसंद है और सिनेमा को देखने का आपका नजरिया अब मैच्योरिटी लेवल है तो ये फ़िल्म आपको पसंद जरूर आएं।
‘ओपेनहाइमर’ की कहानी
हालांकि एक scientist जिसने वो बनाया जिससे दुनिया की तबाही हुई थी। उसके जीवन पर क्या बीत रही थी, लाइक ऐटॉमिक बॉम्ब बनाने से पहले वो क्या था और बन जाने के बाद उसके अंदर क्या उथल पुथल हुई, ये उस बात पर ज्यादा फोकस करती फ़िल्म है
ऐंड ऐक्टर्सजी ने जीस तरह से ओपनहाइमर के अंदर चलती उथल पुथल को ऑडियंस के सामने लाया है। बेशक उनको इस एक्टिंग के लिए कोई अवॉर्ड जरूर मिलेगा और साथ दिया है रॉबर्ट डॉनी जूनियर ने जिनको भले ही आप आइरनमैन के अवतार में देखते आ रहे हो लेकिन यहाँ उन्होंने अपने एक अलग अंदाज में जलवे बिखेरे है।
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Oppenheimer MOVIE REVIEW
भाई साहब, क्या ये मूवी बस ऐक्टर्स की परफॉर्मेंस और क्रिस्टोफर नोलन के काम के दम पर ही चल पाएगी? मुझे लगता है ना, क्योंकि जीस तरह से स्टोरी टेलिंग हुई है। वो बहुत लेंथी हैं। फर्स्ट हाफ में सिर्फ और सिर्फ बातें, बातें, बातें हो रही है।
डाइअलॉग बाजी हो रही है। बस और एक समय पर आपको लगेगा की यार चलना बाएँ जो देखने के लिए आए थे वो दिखाना बॉम कब फोड़ेगा रे तू उसी चक्कर में मैंने नोटिस किया के फर्स्ट में ही 3-4 लोग थिएटर से उठकर चले गए थे क्योंकि वो लोग बोर हो रहे थे।
मूवी अपने ओवर टॉकिंग सीन्स की वजह से फर्स्ट हाफ में बोरियत की तरफ झुकते चले जाती है। लेकिन अगेन सेकंड हाफ की अगर बात करें तो सेकंड हाफ में एटॉमिक बम बनाने का टेंशन, उसके टेस्टिंग का टेंशन और टेस्टिंग के बाद का सिनारियो काफी अच्छे से पर्दे पर दिखाया गया है।
लेकिन वो बस 10 से 20 मिनट का ही खेल है। भाई साहब अगेन फिर से वही टॉक शो शुरू हो जाता है जिसमें डाइलॉग पे डायलॉग मारे जा रहे हैं। बीच बीच में कोर्ट रूम ड्रामा भी है जो थोड़ा सा टेंशन ऐंड हाइप क्रिएट करते हैं। लेकिन जीस पर्पस के लिए लोग इसे देखने जा रहे हैं अगर वो पर्पस सिर्फ ऑटोमिक बॉम का बनना और उसे स्क्रीन पर दिखाया कैसे गया है तो आपको निराशा हाथ लगेंगी।
लम्बी होने के बावजूद कसी हुई लगती है फिल्म
भाई साहब क्योंकि उस पर्टिकुलर टॉपिक पर फोकस करने से ज्यादा इस फ़िल्म में ओपनहाइमर की निजी जिंदगी, उनके अफेयर्स, उनके पॉलिटिकल इशूज पर ज़ोर डाला गया है, जो शायद ही आपको थिएटर की सीट पर टिका के रखे।
मैं अगेन ये कहना चाहूंगा की ये मूवी हर किसी के लिए बिल्कुल भी नहीं है। इवन एक सीन पर यहाँ मैं यहाँ पता नहीं मैं क्या बोलने वाला हूँ लेकिन एक सीन पर यहाँ बहुत बड़ा बवाल हो सकता है भगवद्गीता को लेकर, हमारी हिंदू धर्म की भगवद्गीता को लेकर, क्योंकि उसके साथ जो सीन फ़िल्माया गया है ना, मैं स्पॉयलर नहीं दे रहा हूँ।
अगर वो सीन बॉलीवुड की किसी फ़िल्म में होता ना अब तक यह फ़िल्म बंद हो जाती, पोस्टर्स जलाये जाते, फ़िल्म का बॉयकॉट शुरू हो जाता।
बाकी मेरे लिए यह फ़िल्म उस कैटेगरी में नहीं आती जीसको एन्टरटेनमेन्ट कहते है, हाँ, यह उस कैटगरी में बिल्कुल फिट बैठती है जीसको सिर्फ क्या कहते हैं? बायोग्राफिकल ड्रामा कहते हैं तो मेरी तरफ से इस मूवी को थ्री आउट ऑफ फाइव स्टार्स मुझे जज मत करो। आप फ़िल्म देखो आप खुद ही स्टार्स दो,…